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आठ साल की उम्र में याद कर लिए थे सभी वेद : आदि गुरु शंकराचार्य

भगवान् भोले नाथ के अवतार कहे जाने वाले आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म 508 ईसापूर्व केरल के कालड़ी गांव में हुआ था।उनके माता आर्याम्बा और पिता शिव गुरु उनको शंकर नाम से पुकारते थे। शंकर अपने माता पिता के एकलौते संतान थे। उनके पिताजी की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी।  बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनि शंकर के अंदर अद्भुत तर्क शक्ति तथा स्मरण शक्ति भी। मात्र आठ साल की उम्र में शंकर ने चारो वेदो को कंठस्थ कर लिया था। बारह वर्ष की उम्र में सभी उपनिषद दर्शन में महारथ हासिल कर लिए थे और सोलह वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र भाष्य रच कर यह सिद्ध कर दिया की महदेव के अवतार ही ऐसी दुर्लभ चमत्कार कर सकते हैं।

Adi Guru Shankaracharya
Adi Guru Shankaracharya

 धर्म रक्षा हेतु भारत के चारो दिशा में चार मठो की स्थापना की थी :-

आदि गुरु शंकराचार्य ने पुरे भारत की यात्रा की तथा सनातन धर्म को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार दिशा में चार मठों की स्थापना की। पश्चिम दिशा के द्वारका में शारदामठ की स्थापना की। उत्तर दिशा में आदि गुरु शंकराचार्य ने बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना की। पूर्व दिशा में उन्होंने जगन्नाथपुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की।   उन्होंने दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी मठ की स्थापना की। इन सभी मठो में आज भी शंकराचार्य के पद पर सुपात्र को बैठाया जाता हैं लेकिन जो विलक्षण ज्ञान आदि गुरु शंकराचार्य का था आज तक किसी भी मठ के किसी भी शंकराचार्य का नहीं हुआ हैं। मठो में आदि गुरु शंकराचार्य से लेकर अभी तक जितने भी गुरु  शिष्य हुवे हैं उनका इतिहस सुरक्षित हैं। 


गुरु की खोज में कड़ी तपस्या की :-

आठ वर्ष की अल्पायु में ही शंकर ने गृहस्थ जीवन छोड़ कर सन्यास जैसे कठिन तपस्या का रास्ता अपनाने वाला यह बालक कई महीनो तक गुरु की खोज में जंगलो, झाड़ियों, पहाड़ो, कंदराओं  में कठिन तपस्या की। गुरु की खोज में शंकर ने हजारो किलोमीटर के पैदल यात्रा भी की। अंत में ईश्वर की कृपा उन पर हुई और मध्यप्रदेश स्थित ओम्कारेश्वर में उन्हें गुरु गोविन्द योगी से मुलाकात हुई। विलुप्त हो रहे वेद और उपनिषदों को पुनः लेखन की जिम्मेदारी भी शंकर ने पूरी निष्ठां से निभाई तथा अपने गुरु की आज्ञा से उन्होंने वेद उपनिषद में नै जान फोन दी। 
Adi Guru Shankaracharya
Adi Guru Shankaracharya

अद्वैतवाद के प्रणेता थे आदि गुरु :- 

आदि गुरु शंकराचार्य अद्वैतवाद प्रणेता थे। वह आत्मा और परमात्मा को एक ही कहते थे जो की वेदो का ही ज्ञान हैं।  वह कहते थे की वह परमात्मा एक ही समय सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में विद्यमान रहता हैं। भारतीय इतिहास में आदि गुरु शंकराचार्य को श्रेष्ठत्तम दार्शनिक कहा जाता हैं। उन्होंने अद्वैतवाद को प्रचलित किया था तथा वैदिक धर्म का प्रचार किया था। गुरु को समर्पित गुरुअष्टकाम आदि गुरु द्वारा लिखित अति दुर्लभ रचना हैं। 

सौ से अधिक भाष्य की रचना की थी :-

आदि गुरु शंकराचार्य ने अपने शिष्यों को पढ़ाते हुवे सौ से अधिक दुर्लभ भाष्य की रचना कर दी थी। उपनिषदों, श्रीमद भगवत गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर ऐसे भाष्य लिखे हैं की वो अति दुर्लभ हैं। वे अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान् और महान पंडित थे जिन्होंने उस काल के सभी जैन और बौद्ध आचार्यो को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया था और अपने ज्ञान के डैम पर सबको पराजित कर धर्म की पुनः स्थापना की।  अद्वैतवाद पर पूरी दुनिया  दुर्लभ और सटीक रचना आदि गुरु शंकराचार्य ने ही की हैं। 
Adi Guru Shankaracharya
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आदि गुरु से शास्त्रर्थ से पराजित होकर मंडान मिश्र ने किया था आत्मदाह :-

उस समय के सबसे बड़े विद्वानों में एक बौद्ध आचार्य मण्डन मिश्र को आदि गुरु ने शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया जब दोनों शास्त्रार्थ हेतु उपस्थित हुवे तो शास्त्रार्थ में जय विजय का निर्णय कौन करेगा इसकी समस्या उत्पन्न हो गई फिर आदि गुरु ने मंडन मिश्र की पत्नी को ही निर्णयकर्ता बना दिया। दोनों महा पंडितो में शास्त्रार्थ शुरू हुआ कोई भी हार मानने को तैयार नहीं था कई दिनों तक शास्त्रार्थ चलता रहा परिणाम ना निकलता देख सब कोई दोनों ज्ञानियों के ज्ञान से आशचर्यचकित थे फिर मंडन मिश्र के चेहरे के भाव बदलने लगे वो विचलित होने लगे उनके चेहरे पर क्रोध का भाव स्पष्ट दिखने लगा वही शंकर पुरे सरल भाव से सभी प्रश्नो का जवाब दे रहे थे। फिर मंडन मिश्र की पत्नी ने निर्णय सुनाया की जिसके पास ज्ञान हैं वो क्रोध लोभ मोह से मुक्त है चुकी शास्त्रार्थ ज्ञान की ही परीक्षा लेता हैं अतः शास्त्रार्थ के बिच मंडन मिश्र के चेहरे के भाव से पता चलता हैं की उन्होंने अपने ज्ञान शक्ति से क्रोध लोभ मोह पर विजय नहीं प्राप्त कर पाए हैं अतः इस शास्त्रार्थ के विजेता आदि गुरु शंकराचार्य ही हुवे। इसके बाद आदि गुरु शंकराचार्य की प्रसिद्धि दिशा में बढ़ने लगी लोग उन्हें महादेव का अवतार कहने लगे।  

दसनामी अखाडा का भी किया था शुरुआत :-

धर्म की रक्षा हेतु आदि गुरु शंकराचार्य ने दसनामी अखाडा का भी शुरुआत किया जिसमे नागा साधुओ को शस्त्र की शिक्षा दी जाती है ताकि समय पड़ने पर वो धर्म की रक्षा हेतु प्राण देने और लेने में कोई संदेह न करे। आज़ादी की लड़ाई में कई बार इन नागा साधुओ ने अपना प्राण अंग्रेजो के गोलियों वजह से गवाएँ हैं। 

One Comment

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  • Unknown

    April 29, 2020 / at 5:51 amsvgReply

    गुरुवर भगवन की लीला अपरम्पार है
    अहम ब्रम्हास्मि

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